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खिड़की: भैया, क्या बात है? आप बहुत थके दिख रहे हो ।
दरवाज़ा: ओ हो. क्या बताऊँ बहन. अभी तो त्यौहार के दिन हैं न, सुबह-शाम, बच्चे मुझे इधर से उधर, उधर से इधर, धड़-धड़ कर मार के खेल रहे हैं। मुझे तो बहुत दर्द हो रहा हैं।
खिड़की: हाँ भैया। ये तो सही है, कभी-कथोड़ा भी तो मुझ पर भी टूट पड़ते हैं। मुझे भी थोड़ा दर्द सहनाता हैं । लेकिन बच्चे इस तरह से घर में उछलते कूदते तो कितना अच्छा लगता है और उन्हें ख़ुशी देख कर, मैं तो अपना दर्द भूल जाती हूँ।
दरवाज़ा: हाँ बहन, तुमने तो ठीक ही कहा। बच्चों को इस तरह उछलते कूदते देख कर बहुत ही अच्छा लगता है।
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